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सम्पूर्ण जगत में कर्मफल एवं पुनर्जन्म विषयक चिन्तन एक महत्त्वपूर्ण बिन्दू है। उपनिषदों में वर्णित पुनर्जन्म सिद्धान्त को समझने के लिए उपनिषदीय वांग्मय के स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है, तभी हम इस सिद्धान्त को समझ पायेंगे। पुनर्जन्म की कल्पना भारतीय विचार जगत् में बहुत प्राचीन है। वेदों एवं ब्राह्मणों में बीजरूप में इसकी चर्चा है और उपनिषदों में इसे स्पष्ट अभिव्यक्ति मिली है। बृहदारण्यक उपनिषदों में इसे स्पष्ट अभिव्यक्ति मिली है। बृहदारण्यक उपनिषद् में बताया गया है कि मरणोपरान्त मानव शरीर के भाग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। जैसे मनुष्य के नेत्र सूर्य में, श्‍वास वायु में, वाणी अग्नि में, मन चन्द्रमा में, कान दिशाओं में, शरीर मिट्टी में, आत्मा आकाश में, बाल पेड़ पौधों में, रक्त और वीर्य जल में विलीन हो जाते हैं। वस्तुतः मनुष्य अच्छे कर्मों से अच्छा तथा बुरे कर्मों से बुरा बनता है। अतः हमारा जीवन हमारे चरित्र का मूर्त रूप होता है।

उपनिषदों में इस बात की विस्तृत व्याख्या की गई है कि मनुष्य किस प्रकार मरता है और पुनः जन्म लेता है। पुनर्जन्म के विषय में कई उदाहरण दिये गये हैं जिस प्रकार जोंक जब घास की लंबी पत्ती के अन्तिम सिरे पर पहुँच जाती है तो वह सहारे के लिए कोई और स्थान खोज लेती है और फिर अपने को उसकी ओर खींचती है, उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर के अन्त पर पहुँचकर सहारे के लिए कोई अन्य स्थान खोज लेता है तथा अपने को उसकी ओर खींचता है।

एक अन्य उदाहरण में कहा गया है कि जिस प्रकार सुनार सोने के एक टुकड़े को लेकर उसे कोई अन्य नवीन, सुन्दर आकृति दे देता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर को त्याग कर तथा अज्ञान को दूर कर कोई और नवीन व अधिक सुन्दर रूप धारण कर लेता है। ये अंश पुनर्जन्म के सिद्धान्त के कई पहलुओं को उजागर करते हैं। आत्मा वर्तमान शरीर को त्यागने से पहले अपने भावी शरीर को खोज लेती है। आत्मा इस अर्थ में सृजनशील है कि वह शरीर का सृजन करती है। शरीर को जब भी वह बदलती है तो एक नवीन रूप धारण करती है। आत्मा के प्रत्येक जीवन के ज्ञान और कर्म द्वारा प्रतिबद्ध और निर्धारित होती है।

मनुष्य जीवन में कर्म का विशेष महत्त्व है क्योंकि कर्म के आधार पर ही पुनर्जन्म आधारित है। छांदोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि अच्छे कर्मों से मनुष्य को उच्च योनि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार  कर्म ही जन्म का कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि समस्त संसार कर्म सूत्रों में बंधा है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

प्रस्तुत श्‍लोक में पुनर्जन्म के सिद्धान्त की पुष्टि की गई है। मनुष्य की मृत्यु के पश्‍चात् आत्मा शरीर में प्रवेश करता है।

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कठोपनिषद् में उल्लेख मिलता है कि जो इस संसार में भेद देखता है, वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त नहीं हो पाता, परन्तु अद्वैत विद्या से बुद्धि के संस्कृत होने पर द्वैत दृष्टिकोण का विनाश हो सकता है। बृहदारण्यकोपनिषद् इस बात की पुष्टि करता है कि व्यक्ति अपने कर्मों से ही अपने उज्जवल भावी जीवन का निर्माण करता है। मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति के अनुसार ही अपनपा कर्म निर्धारित करता है। स्वेच्छानुसार ही व्यक्ति अच्छे-बुरे कर्म करता है तथा कर्म के अनुसार ही उसको फल की प्राप्ति होती है। बृहदरारण्यकोपनिषद् में का भी गया हैः-

यथाकारी यथाचारी तथा भवति। साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापी भवति॥ पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापम् पापेन। अथो खल्वाहुः। काममय एवायं पुरुष इति। स यथाकामो भवति तत्कर्म कुरुते। यत्कर्म कुरुते, तदभिसम्पद्यते॥

उक्त उदाहरण उपनिषदों में निहित पुनर्जन्म सिद्धान्त को पुष्ट करता है तथा उपर्युक्त अंश पुनर्जन्म सिद्धान्त का सर्वप्राचीन एवं स्पष्ट प्रमाण है।

कर्म तथा व्यवहार व्यक्ति की इच्छा और संकल्प पर निर्भर रहते हैं। यह संकल्प इच्छाओं के हेतुभूत उत्पन्न होता है। व्यक्ति की अनेकशः आकांक्षाएं होती हैं। वह कतिपय आकांक्षाओं को तो पूर्ण कर लेता है परन्तु कुछ इच्छाओं को पूरा करने के लिए वह संकल्प लेता हैं वस्तुतः कामना ही आकांक्षा, कर्म तथा व्यवहार का स्तम्भ है। अन्ततः वही जन्म मरण के चक्रव्यूह अर्थात् संसार का मूल कहा गया है।

मरणोपरान्त आत्मा मनुष्य के द्वारा समस्त जीवन में किए गए कर्मों के साथ बाहर निकलता है। वर्तमान जीवन में कृत कर्म ही उसके नवीन स्वरूप का निर्धारण करते हैं जो उसे अग्रिम जन्म में धारण करना होता है। मनुस्मृति के अवलोकन से भी ज्ञान होता है कि शुभ अशुभ कर्मों के आधार पर ही व्यक्ति का पुनर्जन्म निश्‍चित होता है तथा कर्मानुसार ही उसे उच्च अथवा निम्न योनि की प्राप्ति होती है। अतः मनुष्य को शुभ कार्य में अपना चित्त लगाना चाहिए।

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