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बरतन अलग पानी सबमें एक

भगवान अजन्मा, शाश्व, अजर-अमर-अविनाषी, चैतन्य है। सारी चराचर सृष्टि उसी से उपजी है, आसमां से कई गुना विशाल और छोटी चींटी से भी सूक्ष्म वह परमपिता परमात्मा, जिसके न हाथ है न पैर हैं, न आंख हैं, न कान हैं। अशरीर होते हुए भी सबके शरीर के संग है और फिर भी असंग कहलाता है, जिसका कोई परिवार नहीं उस भगवान को हमने मूर्ति रूप में निर्मित कर दिया, चित्त रूप में प्रेम कर दिया। फिर भी कोई बात नहीं, कम से कम भगवान के अस्तित्व को स्वीकार तो करते हैं। लेकिन बात असहज, गड़बड़ तब होती है जब भगवान को सीमित दायरे में कैद कर दिया, उसके लिए कानून बना दिये और अपने मनमर्जी से बांट कर झगड़ने लगे कि 'मेरा भगवान बड़ा है तुम्हारे भगवान से! कबीर कहे-

'आए एक ही घाट से, उतरे एक ही घाट। संसार की हवा लगी और हो गये बारह बाट।'
कबीरा कुंआ एक हैं, पानी भरैं उनके। भांडे का ही भेद है, पानी सबमें एक।।'

बरतनों का भी है अर्थात् बरतन अलग-अलग हैं लेकिन पानी सबमें एक है। परमात्मा तो सभी में एक स्वरूप में समाया है, उसे चूंकि नहीं जानते, नहीं पहचानते और बाहर उसकी काल्पनिक मूर्ति निर्मित करके आपस में मनमुटाव करने लगे। कल्पना तो कल्पना ही है और असलियत अपने आप में असलियत है। असलियत पर अज्ञानता की कालिख हुई है और इसे किसी अनुभवी संत-महापुरुष के मार्ग दर्शन में हटाया जा सकता है। संभव है यह। जब अज्ञान का पर्दा हटता है तो बात अपने आप सपष्ट हो जाती है, वाद-विवाद का कोई स्थान नहीं है। नरसी भगत कहते हैं -

Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
Ved Katha Pravachan - 16 | Explanation of Vedas | दुःख की निवृति एवं सुख-प्राप्ति के वैदिक उपाय

मंदिर-मंदिर मूरत तेरी, फिर भी न देखी सूरत तेरी।
द्वार दया का अब तुम खोलो, है घट-घटवारी रे।।
द्वार दया का खोलो, से क्या तात्पर्य हुआ? जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं अवतरित होकर लोगों को धर्म की सच्ची राह दिखता हूं। कह रहे हैं भगवान श्रीकृष्ण। आज घोर कलिकाल में सचमुच ऐसे मार्ग दर्शक की जरुरत है जो धर्म व ईश्वर के नाम पर हो रही गलतफहमी व हिंसा को दूर कर ज्ञान की राह दिखाए। कहा गया है-

मंदिर में तो बुत धरे हैं, मस्जिद में साफ-सफाई है, दिल दरगाह में देखों, झलकता नूर-इलाही है।

सभी संत-महात्माओं ने एकमत से कहा है कि हमारे ह्रदय में ही विराजमान ईश्वर का दर्शन करो जहां कोई भेद-भाव नहीं है। अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच, गोरा-काला और न जाने कितने आधारों पर बंटा हुआ मनुष्य समाज ने भगवान को भी बांट दिया है यह कैसी विडम्बना है। कहने को कहते हैं कि 'भगवान एक है, हम सभी मनुष्य उस परमपिता परमात्मा की संतानें हैं और उस भगवान का वास हम सभी के अंदर है।' लेकिन व्यवहारिक रूप अंधकार के गर्त में इस तरह भटक जाते हैं कि पूछिये मत! नफरत, हिंसा और जातिगत भावनाओं के दलदल में फंसकर अनमोल जीवन बर्बाद कर देते हैं। तो मित्रों~ फैसला हमें करना है। अपनी समझ को आगे लाना है किस तरह? अरे, भाई जब भगवान खुद कह रहे हैं कि 'मैं सबकी आत्मा में निवास करता हूं।' तो क्यों नहीं आत्मज्ञान द्वारा ईश्वर को पहचाना जाये? क्यों हम बाहर मन-माने तरीके से इधर-उधर भटक रहे हैं और ठोकरें खा रहे हैं।

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है घट पर दूर बतावैं, दूर की बात निराशी, कहैं कबीर सुनो भाई साधो, गुरु बिन राम न जासी।

सच्चा मार्गदर्शक मिल जाए तो सारे भ्रम दूर हो जाते हैं और जीवन में व्याप्त अज्ञान-अंधकार नष्ट हो जाता है तथा जीवन में ज्ञान का उजाला होने पर स्वतः ही जीवन आनंद से सरोबार हो जाता है। - आर.डी. अग्रवाल प्रेमी

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We have created God in idol, love in mind. Yet it does not matter, at least we accept the existence of God. But the thing is uncomfortable, the mess happens when God has been confined within a limited range, made laws for him and started to quarrel with his free will, 'My God is greater than your God !

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