आत्मग्लानि
जहाँ नैतिकता होगी वहां सभ्यता का भौतिक स्वरूप मुखर नहीं होगा। पिता पुत्र के सामने मदिरा सेवन करता है पुत्र पिता के। धीरे से कह देते हैं कि आजकल की सभ्यता है। यदि नैतिकता होती तो मदिरा सेवन का लज्जाहीन कृत्य न होता। वे लोग मुर्ख कहलाते हैं जो पूर्ण सदाचार और नैतिकता से जीवन जीते हैं। परिवार ही नाराज रहते हैं कि आपने जीवन भर किया क्या? बच्चों की ठीक शिक्षा-दीक्षा नहीं, शहर में सुविधा युक्त मकान नहीं। जहाँ धन की भूमिका मनुष्य के महत्व को सिद्ध करती हो, वहाँ ऐसे लोग सम्मान से भी वंचित रहते हैं। लेकिन यह भी एक दीवानगी है, नैतिकता की और मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता की।
सम्मान की चाहत भी नहीं, आत्मा में संतोष है, कहीं भी आत्मग्लानि नहीं तो इससे बड़ा सम्मान क्या होगा ? यह ठीक है कि पैसा महत्वपूर्ण हैं। उसके लिये योग्यता बढ़ाई जा सकती है, कठिन परिश्रम किया जा सकता है, लेकिन शार्ट-कट मारना इन्सान के वजन को ही कम नहीं करता, उसे आंतरिक आधार पर खोखला बना देता है।
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महान योगी और चिन्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने महात्मा विरजानन्द से ढाई वर्ष तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य और वेदान्त सूत्र आदि की शिक्षा ग्रहण की। जब शिक्षा पूर्ण करने के बाद विदा की बेला आई तो दयानन्द ने कुछ लौंग गुरुदक्षिणा के रूप में गुरु के सम्मुख रखकर चरण स्पर्श करते हुए देशाटन की आज्ञा मांगी।...
सकारात्मक सोच का विकास बहुत अधिक धन-दौलत, शोहरत और बड़ी-बड़ी उपलब्धियां ही जीवन की सार्थकता-सफलता नहीं मानी जा सकती और ना ही उनसे आनन्द मिलता है। अपितु दैनिक जीवन की छोटी-छोटी चीजों और घटनाओं में आनन्द को पाया जा सकता है। लोग अक्सर अपने सुखद वर्तमान को दांव पर लगाकर भविष्य में सुख और आनन्द की कामना और प्रतीक्षा करते रहते हैं।...