उपनिषदों में पुनर्जन्म की दो मार्गों की विवेचना की गई है। छांदोग्योपनिषद् में कहा है कि जो लोग यज्ञ करते हैं, जन कल्याण का कार्य करते हैं एवं दान देते हैं, वे चन्द्रलोक जाते हैं और जब उनके सत्कर्मों के फल की समाप्ति हो जाती है तो वे उसी मार्ग से वापस लौट आते हैं, जिसके द्वारा चन्द्रलोक गए थे। फिर किसी अन्य माता के गर्भ से जन्म धारण करते हैं।
प्रश्न उपनिषद् में भी कहा गया है कि जो ऋषि तप, श्रद्धा तथा ज्ञान के द्वारा आत्मा का स्वरूप जान लेते हैं वे उत्तर की ओर से सूर्य की ओर जाते हैं, जो अमृत हैं भयमुक्त हैं। अतः यहां से वे पुनः लौटते नहीं।
ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में देवयान व पितृयान का वर्णन होता है। कौषीतकि उपनिषद् में भी देवयान एवं पितृयान का स्पष्ट उल्लेख किया गया है।
कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को ब्रह्मविद्या का गहन रहस्य बताया है। कतिपय व्यक्ति दैहिक अस्तित्व के लिए माता के गर्भाशय में प्रवेश कर लेते हैं तथा अन्य अपने कर्मों और ज्ञान के द्वारा स्थाणुओं में परिवर्तित हो जाते हैं।
छांदोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि जिन व्यक्तियों के आचरण रमणीय होते हैं उन्हें रमणीय योनि प्राप्त होती है यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य योनि। जिनके आचरण बुरे हैं वे बुरी योनि प्राप्त करते हैं उदाहरण- श्व, सूकर, चाण्डाल योनि इत्यादि।
उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अच्छे कर्म करेगा उसे शुभ फल तथा जो व्यक्ति बुरे कर्म करेगा उसे अशुभ फल की प्राप्ति होती है। वस्तुतः प्रश्न यह उठता है कि कर्म क्या है? और किस प्रकार का है? इत्यादि प्रश्नों के समाधान हेतु भारतीय विद्वानों ने कर्म के तीन प्रकार बताए हैं -
संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण या संचीयमान कर्म संचित कर्म से अभिप्राय पूर्व जन्म में किया गया कर्म है। इसके फल का अभी उदय नहीं हुआ है। यह संस्कार रूप में समय की प्रतीक्षा करता है। प्रारब्ध कर्म पूर्व जन्म में किए गए कर्म हैं इनके फलोदय का समय अभी नहीं हुआ है तथा यह भी संस्कार रूप में प्रतीक्षा करता है। क्रियामाण कर्म से तात्पर्य है कि वर्तमान जीवन में किया जाने वाला कर्म। जिसका फल भविष्य में प्राप्त होगा। यह संस्कार निधि है। इसका उपभोग भविष्य काल के लिए है।
मनुष्य पूर्व में किए गए शुभ-अशुभ कर्म का फल भोगता है। कर्म का निर्मूलन हो जाने पर मुक्ति हो जाती है। व्यक्ति स्वयं के शुभ-अशुभ कर्मानुसार ही दीर्घजीवी, अल्पायु, सुखी व दुःखी होता है।
कर्म के चार फल बताए गए हैं, उत्पत्ति, संस्कार, विकार तथा आप्ति। महर्षि पतंजलि ने कर्म तथा पुनर्जन्म के अंतहीन चक्र को समाप्त करने का साधन ज्ञान को माना है। इस सम्बन्ध में मोक्ष की विचारणा उचित प्रतीत होती है। क्योंकि मोक्ष कर्मजन्य नहीं, अपितु नित्य है। जो वस्तु कर्म का कार्य है, अवश्य ही अनित्य है। अतएव मोक्ष को ज्ञानजन्य कहा गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में वर्णन होता है कि इस त्रिलोक के मध्य में स्थित एक ही हंस है। हंस परमात्मा को कहा गया है। क्योंकि उसी का साघात्कार करके पुरुष मृत्यु को पर कर लेता है। अतः मोक्ष के लिए कोई मार्ग नहीं है। कहा भी गया है-
एको हंसा भुवनवस्य मध्ये, स एवाग्निः सलिले सन्निविष्टः।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥
इस सम्बन्ध में मुंडकोपनिषद् में भी कहा गया है कि जब ज्ञान के द्वारा मनुष्य का चरित्र शुद्ध हो जाता है तो वह चिन्तन द्वारा ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। जो न वाणी से, न दृष्टि से और न ही कर्म से प्राप्त हो सकता है अपितु ज्ञान द्वारा ही सम्भव है। वस्तुतः आत्मा के शुद्ध आत्मज्ञान होने पर आत्मा एवं परमात्मा के एकीकरण का प्रबोध हो जाता है, आत्मज्ञान प्राप्ति के पश्चात् कुछ भी अवशेष नहीं रह जाता।
उपर्युक्त उद्धृत कथनों द्वारा ज्ञात होता है कि ऋषि-मुनियों ने उपनिषद् साहित्य में कर्म, पुनर्जन्म तथा मोक्ष से सम्बन्धित इत्यादि बिन्दुओं पर सूक्ष्म चिन्तन मनन किया है। कहा जाता है कि उपनिषद् रहस्यात्मक हैं, परन्तु वे कर्म की उपादेयता पर भी विशेष बल देते हैं क्योंकि ब्रह्म तत्त्व को जानने के लिए कर्म एक सीढी के समान है। कर्म के द्वारा ही मनुष्य की चित्तशुद्धि होती है। अतः साधन रूप में इसका अत्यन्त महत्त्व है।